देखो कैसे संभाला हैं मैंने
ईन मोतीयों जैसे
आंसूँओं को
ना पलके झपकाई मैंने
ना गिरने दी
तुम्हारे दिए ईन
अनमोल तोफो को !
सागर की सीने में दफ़्न
जैसे रहता हैं खज़ाना कोई
वैसे ही मेरे रूह मैं छिपा
तुम्हारा ही धुंदला सा
परछाई कोई !
रेत की तरहा फिसलती जाये
मुट्ठी में समाई सांसे मेरी
अब इससे मैं कैसे संभालू
चल दी जो वो साथ तेरी !
सफर बोहोत लम्बी नहीं
न ही बड़ी लम्बी रस्ते हैं
तुम्हारे आत्मा से
मेरी आत्मा की दुरी
बस एक हाथ का हैं
दो कदम तुम चलना
चार चलूंगी मैं भी
आँख से मोती टपकने से पहले
गले मिलेंगे हम भी !
~मंजरी ~
No comments:
Post a Comment